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प्राचीन भारत में शैक्षिक संस्थाएँ एवं उनके आय के विभिन्न साधन | Original Article

Shveta Kumari*, Ramakant Sharma, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

प्रारम्भ में जब जीवन की आवश्यकताएँ एवं ज्ञान का क्षेत्र सीमित था, तब परिवार में ही सभी प्रकार की शिक्षा का कार्य सम्पन्न होता था किन्तु बाद में इसे अपर्याप्त अनुभव किया गया और अन्य प्रकार की शैक्षिक संस्थाओं का जन्म एवं विकास हुआ। शैक्षिक संस्थाओं की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है। प्राचीन भारत में शैक्षिक संस्थाओं में किन किन सुविधाओं की आवश्यकता होती थी और उनके प्रबन्ध के लिए वित्त की व्यवस्था कैसे होती थी, यह जानना वर्तमान में इसे समुन्नत बनाने की दृष्टि से आवश्यक है। आश्रमों का सम्पूर्ण प्रबन्धन गुरू द्वारा किया जाता था जिसमें शिष्य लोग उसकी सहायता करते थे। कालान्तर में बौद्ध धर्म के उदय के बाद बौद्ध विहार प्रमुख शिक्षण संस्थान बन गये। इन विहारों में रहते हुए छात्र शिक्षा प्राप्त किया करते थे। विहार भी गुरूकुल के समान ही पूर्णतः आवासीय थे तथा यहाँ पर भी छात्रों को निःशुल्क शुक्षा प्रदान की जाती थी। इन विहारों में से कुछ ने कालान्तर में विश्वविद्यालयों का रूप ग्रहण कर लिया। बौद्ध विहारों के अनुकरण पर ही हिन्दुओं ने मन्दिरों में पाठशालाए खोल दी तथा धीरे-धीरे मन्दिर भी शिक्षा के प्रमुख केन्द्र बन गये। इसी प्रकार विभिन्न सम्प्रदायों के विद्वान आचार्यो ने भी अपने मठों के शिक्षण की व्यवस्था की जिससे वे भी शिक्षा के केन्द्र बन गये। अग्रहार ग्राम भी उच्च शिक्षा के केन्द्र के रूप में विकसीत हुए। इन औपचारिक संस्थाओं के अतिरिक्त प्राचीन काल में परिषद्, चरक तथा शाखा का भी उल्लेख मिलता है, जो शिक्षा के प्रचार-प्रसार व विकास के लिए महत्वपूर्ण कार्य करते थे। यद्यपि प्राचीन भारत के विभिन्न कालों के शिक्षण संस्थाओं के स्वरूप में परिवर्तन होता रहा किन्तु स्वतंत्र शिक्षक तथा उसकी पाठशाला का महत्व सारे देश में सामान्य जन की शिक्षा की दृष्टि से सदैव बना रहा।