हिन्दी नवगीत में सामाजिक जीवन दृष्टि और लोक संवेदना | Original Article
लोक संवेदना में भारतीय जन की बाहरी दुनिया में हुए तेजी से बदलाव के फलस्वरूप व्यक्ति की आन्तरिक टूटन और चिर-परिचित लोक से बिछुड़ने का विवश संत्रास नवगीत में अभिव्यक्त हुआ है। लोक के प्रति सच्चा व गहरा भाव-बोध नवगीतकार की असल पहचान है। लोक एक वृहत्तर परिवेश व्याप्त अभिधा है जो आंचलिक जन-जीवन की सीमाओं को लांघकर राष्ट्रीय नगरों व महानगरीय इकाईयों तक परिव्याप्त है। गाव में संयुक्त परिवार की टूटन तथा शहर में न्यस्त स्वार्थ के सम्बन्धों की स्मृतियों का एक समूचा लोक लेकर उपस्थित होते हैं। यही कारण है कि शहर में रहते हुए भी वह अपने घर, परिवार की निर्धनता, परिवारजनों की बीमारी उनके अभाव तथा परिवेश और गांववासियों की कुशल-क्षेम को भूल नहीं पाता। उसे बार-बार अपने गाव का वह जीवन याद आता है जो उसने उस परिवेश में गुजारा है।