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आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की आलोचनात्मक द्रष्टि | Original Article

Ramesh Dahiya*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

हिंदी साहित्य के आधार स्तम्भ चिंतक आलोचक उत्कृश्ट निंबधकार दार्षनिक सिद्वहस्त कवि और नीर-क्षीर विवेक से संपन्न संपादक तथा सफल अध्यापक आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म 1884 ई. में पूर्वी उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अगोना नामक ग्राम में हुआ था। 1908 ई. से लेकर 1919 ई. तक का समय शुक्ल जी के मानसिक बौद्विक विकास के निखार ओर उत्कर्ष का है। इस दौरान उन्होंने इतिहास दर्शन मनोविज्ञान और विज्ञान का उत्साह से अध्ययन किया और लेखन के नाम पर कोश के लिए संगृहीत शब्दों पर प्रामाणिक टिप्पणियों के साथ नागरी प्रचारिणी पत्रिका को नया रूप देने और समृद्व करने के लिए विभिन्न विषयों पर निबंध लिखा शुक्ल जी एक सुविख्यात निबंधकार एव समालोचक के रूप में प्रसिद्व हैं, किंतु उनके साहित्य के जीवन का आरंभ कविता कहानी और नाटक रचना से होता है। उनकी प्रथम रचना एक कविता थी जो 1896 ई. में आनंद कादंबिनी में भारत और बसंत नाम से छपी थी। इसी तरह उनके द्वारा-लिखित कहानी ग्यारह वर्ष का समय सरस्वती में प्रकाशित हुई थी जो हिंदी की प्रारंभिक चार सर्वक्षेष्ठ कहानियों में से है। शुक्ल जी का साहित्यिक जीवन विविध पक्षो वाला है। उन्होंने ब्रजभाषा और खड़ी बोली में फुटकर कविताएँ लिखी तथा एडविन आर्नलड के लाइट ऑफ़ एशिया का ब्रजभाषा में बुद्वचरित के नाम से पद्य भी किया 1919 ई. में मालवीय जी के आग्रह पर जब शुक्ल जी ने अध्यापन आरंभ किया तब उन्होंने विश्वविद्यालय में हिंदी विषय के स्वीकृत होने के बाद पाठयक्रम के अनुरूप पुस्तकें उपलब्ध न होने की समस्या को चुनौती के रूप में स्वीकार किया। स्वयं स्तरीय ग्रंथों की रचना की और संपादन कार्य भी किया। रस मीमांसा तथा चिंतामणि में संग्रहित लेख जायसी तुलसी और सूर पर लिखी उनकी महत्त्वपूर्ण आलोचनाएँ हिंदी साहित्य में मील का पत्थर मानी जाने वाली कृति हिंदी साहित्य का इतिहास एवं अनेक ग्रंथ इसी अकादमिक चुनौती को स्वीकार करके रचे गए।