कबीरदास के काव्य में माया का स्थान | Original Article
कबीरदास जी हिन्दी की निर्गुण भक्ति काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं। जिस समय आम जनमानस में धर्म के विषय में असमंजस की स्थिति थी उसी समय कबीरदास का आविर्भाव हुआ। कबीरदास ने हर धर्म के नियमों, रीतियों को देखा तथा विभिन्न धर्मों में व्याप्त कुरीतियों पर उन्होंने अपनी कड़ी वाणी के माध्यम से कुठाराघात किया। कबीरदास जी निर्गुण ईश्वर में विश्वास करते हैं तथा उन्होंने ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में माया को सबसे बड़ा बंधन माना है। माया शब्द उच्चरित करते ही हमारे मस्तिष्क में लौकिक धन-दौलत के चित्र उभरने लगते हैं। संसार के ये सभी उपादान हमको बाँधकर रखते हैं। माया एक ऐसा बंधन है जो मनुष्य को अपने जाल में उलझाकर रखता है। मनुष्य चाहकर भी इस बंधन से निकल नहीं पाता। ईश्वरीय भक्ति में भी माया पथबाधा बनी प्रतीत होती है। कबीरदास जी ने माया को अपनी काव्य में घोर विरोध किया है तथा माया को महाठगिनी कहा है।