हिन्दी कविता और स्त्री विमर्श रमणिका गुप्ता के काव्य में स्त्री विमर्श | Original Article
स्त्री ईश्वर की अनुपम कृति है। इससे भी अधिक अनुपम है उसकी कार्यक्षमता। स्त्री ने स्वयं को समय के अनुसार परिवर्तित किया है, उसने घरेलु कार्यों के साथ-2 पढ़-लिखकर घर से बाहर निकलकर भी जीवन यापन के लिए कार्य करना प्रांरभ किया है। स्त्री-विमर्श की क्रांति एक दिन में ही नहीं आई इस क्रांति की ज्वाला को प्रज्जवलित करने के लिए एक-कदम बढ़ाने में बरसों लंबा समय लगा है। संकुचित विचारधारा के लोग स्त्री-विमर्श को पुरुषों के विरुद्ध आंदोलन के रूप में देखते हैं। स्त्री-विमर्श का अर्थ पुरुषों को विरोध करना नहीं है। स्त्री-विमर्श परिवार तथा समाज को तोड़ने का काम नहीं करता। स्त्री-विमर्श के द्वारा स्त्री को समाज में सम्मान दिलाना ही उसका एकमात्र दायित्व रहा है। स्त्री-विमर्श की विचारधारा को असमानता के चश्में से देखना निरर्थक है। स्त्री समाज का अहम् हिस्सा है उसको मुक्ति दुखों से मुक्ति दिलाना तथा मनुष्य के रूप में उससे व्यवहार करना ही मानवीयता है। रमणिका गुप्ता की कविताओं का ध्यान से अंकन किया जाए तो उनकी कविताओं में स्त्री के विविध रूपों के दर्शन हम करते हैं। रमणिका जी ने अपने काव्य में स्त्री जीवन के यथार्थ को भलीभाँति चित्रित किया है। रमणिका जी ने पूरा प्रयास किया कि पात्र काल्पनिक न होकर सजीव धरातल से लेकर उनको अमर रूप प्रदान किया जाए।