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हिंदी नाट्यक्रमों का विकास एवं उसमें आये बदलावों का अध्ययन | Original Article

Mamatha Sharma*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

साहित्य में लोकमंगल की भावना सन्निहित है। यह लोककल्याण की भावना का झरना है जो मान की ज्ञान पिपासा को शांत कर उसे शीतलता प्रदान करता है। साहित्य ही मानव लोक तत्व के प्रति सचेत कर नवीन चेतना का सृजन करता है। साहित्य अपने समय और समाज का दस्तावेज होता है। साहित्य समाज की चेतना में¬ सांस लेता है। वह समाज का परिधान है। जो जनता के जीवन के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आकर्षण और विकर्षण का ताना-बाना बुना जाता है तथा समाज में उसमें विशाल मानवीयता के दर्शन होते हैं। साहित्य मानव की अनुभूतियों, भावनाओं, कलाओं एवं संघर्ष की कथाओं का दस्तावेज है। साहित्य युग सापेक्ष होता है। उसके मूल-मानव जीवन के संघर्ष का परिवेश, वातावरण, परम्परा, इतिहास और आधुनिकता का समावेश होता है। मनुष्य एक संघर्षशील व चिन्तनशील प्राणी है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का ऐसा कोई भी पक्ष नही जो मनुष्य के चिन्तन से अछूता रहा हो।