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हरिशंकर परसाई के साहित्य में यथार्थ - चेतना | Original Article

Sunita .*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

हरिशंकर परसाई के व्यंग्य साहित्य में यथार्थबोध का विश्लेषण किया गया है । “यथार्थ कृत्यात्मकता में निहित होता है । इसलिए उसे केवल क्रियात्मक रूप से जाना जा सकता है ।हर वह तथ्य जो क्रियमाण या प्रवृत्तमान है ,यथार्थ है ।यथार्थ का प्रकटीकरण गति या प्रवृत्ति के द्वारा होता है ,इसलिए गति या प्रवृत्ति यथार्थ के रूपाकार हैं । जो घटित हो रहा है ,वह यथार्थ है और जिसके घटित होने की संभाव्यता है ,वह संभावना है । यथार्थ अस्तित्वभूत होता है, उसका अवबोधन इन्द्रियों के माध्यम से संभव है लेकिन संभावना परोक्ष और अनगढ़ होती है । यथार्थ एक साकार संभावना होती है जबकि संभावना एक गर्भित यथार्थ होता है, जिसके अवतरण का न तो समय निशित होता है और न स्वयं अवतरण। यथार्थ वह है जो अपने विद्यमान रूप में है और आदर्श वह है जो देश, काल और परिस्थिति के अनुसार वांछनीय और उचित है । इसलिए आदर्श हमेशा श्रेयस्कर होते हैं ।कहना न होगा कि हमारा बल आदर्श के यथार्थीकरण पर होना चाहिए ।”[1] इसी क्रम में यथार्थ का बोध होने से तात्पर्य यह है कि जीवन की समग्र परिस्थितियों के प्रति ईमानदारी से उसके अच्छे-बुरे दोनों पक्षों को आत्मसात करते हुए उनका चित्रण करना ।