महिला उपन्यासकार सामाजिक मूल्य | Original Article
भारतीय-संस्कृति में धर्म को ‘धारण’ करने के अर्थ में लिया गया है- ‘धारणाद् धर्ममित्याहुः’। यहाँ पर धारण करने का तात्पर्य प्रजा को धारण करने से है अर्थात् जिसके द्वारा समाज एवं मनुष्यत्व सुरक्षित रहे। सामाजिक व्यवस्था तभी सुरक्षित रह सकती है जब सभी अपने कत्र्तव्यों का पालन करे। लेकिन कत्र्तव्यों का पालन सदाचार के अभाव में सम्भव नहीं है। कत्र्तव्य-पालन के द्वारा सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखना मनुष्य का धर्म है। इस प्रकार धर्म एवं सदाचार एक दूसरे से अलग नहीं है, बल्कि सदाचार ही धर्म है और धर्म का तात्पर्य सदाचार से हैं। नैतिकता एवं सदाचार से ही सामाजिक व्यवस्था सही दिशा में कार्य कर सकती है। सम्पूर्ण विश्व या ब्रह्माण्ड का संतुलन अपनी आन्तरिक शक्ति से चल रहा है लेकिन समाज में संतुलन बनाये रखने के लिये मर्यादा और व्यवस्था स्थापित करनी पड़ती है। मनुष्य भी इस विश्वव्यापी संतुलन में अपने को बनाये रखने के लिए अपनी भावनाओं, विचारों, प्रवृत्तियों और आवश्यकताओं का संतुलन करके अपने व्यक्तित्व को व्यवस्थित करता है।