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संस्कृति की द्रष्टि से भारत का वैश्विक प्रसार | Original Article

Manisha .*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

प्रत्येक राष्ट्र की पहचान उसकी सांस्कृतिक धरोहर तथा सामाजिक मूल्यों से होती है भारतीय संस्कृति का स्वरूप निःसंदेह रूप से समन्वयवादी तथा लोक कल्याणकारी रहा है संस्कृति मानव-चेतना की स्वस्तिपरक उर्जा का ऐसा उध्र्वमुखी सौन्दर्यमयी प्रवाह होता है जो व्यक्ति के मन, बुद्धि और आत्मा के सूक्ष्म व्यापारों की रमणीयता से होता हुआ समष्टि-कर्म की सुष्ठुता में साकार होता है। संस्कृति का एक रूप देश-काल सापेक्ष है तो दूसरा देश-काल निरपेक्ष। सचमुच भारत एक महासागर है। भारतीय संस्कृति महासागर है। विश्व की तमाम संस्कृतियाँ आकर इसमें समाहित हो गई है। आज जिसे आर्य संस्कृति, हिंदू संस्कृति आदि नामों से जाना जाता है, वस्तुतः वह भारतीय संस्कृति है। जिसकी धारा सिंधु घाटी की सभ्यता, प्रागवैदिक और वैदिक संस्कृति से झरती हुई नवोन्मेषकाल तक बहती रही है। अनेकानेक धर्मों सभ्यताओं और संस्कृतियों को अपने में समाहित किए हुए इस भारतीय संस्कृति को सामासिक संस्कृति की कहना उचित है। संस्कृति की सामासिकता का तात्पर्य है कि इसमें अनेक ऐसे मतों का प्रश्रय मिला है, जो परस्पर नकुल-सर्प-संबंध” के लिए प्रसिद्ध रहे है। अनेकता में एकता के साथ हमारे समाज की रचनात्मक उर्जा अधिकाधिक मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाती रही है। यह सांस्कृतिक अनुशासन भारतीय समाज की विशिष्टता है। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के एक गीत का भाव है - यहाँ आर्य भी आए, अनार्य भी आए, द्रविड़, चीनी, शक, हूण, पठान, मुगल सभी यहाँ आए, लेकिन कोई भी अलग नहीं रहा, सब इस महासागर में विलीन होकर एक हो गए।