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मुंशी प्रेमचंद की कथा साहित्य में आधुनिक दलित विमर्श का अध्ययन | Original Article

Meenakshi .*, Navita Rani, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

प्रेमचंद की रचनाओं में दलित विमर्श के संदर्भ में मूल्यांकन करने से पूर्व उस दौर (1920-1936) की दलित समस्याओं पर राजनीतिज्ञों की सोच, सामाजिक मान्यताओं, दृष्टिकोण, विद्वानों, लेखकों की धारणाओं, विचारों आदि को जानना अत्यंत आवश्यक है। इसी दौर में स्वतंत्रता अंादोलन, नवजागरण, आर्य समाज, ब्रह्मसमााज, कांग्रेसी विचारधारा, हिन्दू महासभा, गांधीजी, डा. भीमराव अंबेडकर आदि के अंादोलन अपने शिखर पर थे। प्रेमचंद का रचनाकर्म इसी दौर का है। डा. अंबेडकर ने दलितों की मूक वाणी को आवाज प्रदान की। दूसरी ओर गांधीजी ने भी अछूतोद्धार की घोषणा की। सन् 1931 की गोलमेज़ काफंरस में डा अंबेडकर ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की मंाग की तो गांधीजी ने उसका विरोध किया। 17 अगस्त 1932 को रैमजे मैकडानल्ड ने अपना निर्णय दिया, जिसमें न केवल मुसलमानों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्रों तथा अन्य सुरक्षाओं का समर्थन किया, बल्कि दलितों को एक ईकाई के रूप में मान्यता दी गई थी।