Article Details

समकालीन हिन्दी उपन्यासों में भारतीय समाज और सांप्रदायिक चित्रण का अध्ययन | Original Article

Soan Kiran Sharma*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

साहित्य जीवन की संचित अनुभूतियों का प्रतिबिम्ब होता है। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, संस्मरण इत्यादि के माध्यम से मनुष्य अपनी आंतरिक भावनाओं को अभिव्यक्त करता है। समाज में घटने वाली घटनाओं से रचनाकार आंदोलित होता है और शब्दों के माध्यम से उसे अंकित कर वापस समाज को दे देता है। सहृदय पाठक इन भावनाओं के साथ जुड़ा हुआ महसूस करता है। उपन्यास की खासियत यह है कि इसमें मनुष्य के पूरे जीवन का लेखा जोखा प्रस्तुत किया जा सकता है। उपन्यास का कैनवास काफी बड़ा होता है जिसमें जीवन की कई घटनाओं का चित्रांकन एक साथ हो सकता है। सांप्रदायिकता एक वैश्विक समस्या है जिसका निदान हर कीमत पर होना जरूरी है। जब तक यह समस्या रहेगी तब तक स्वस्थ समाज का विकास संभव नहीं होगा। हिन्दी के साहित्यकारों की सबसे बड़ी चिंता समतामूलक स्वस्थ समाज का विकास है। स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक इत्यादि की गूजें हिन्दी साहित्य में सुनने को मिलती हैं जो स्वंय हिन्दी साहित्य के प्रगतिशील नजरिये को दर्शाती हैं। सांप्रदायिकता के विभिन्न पहलुओं को हिन्दी के कथाकारों ने देखा, परखा और अभिव्यक्त किया है। अतएव इसे देखना अत्यंत आवश्यक है कि हिन्दी के कथाकारों ने सांप्रदायिकता के किन-किन पहलुओं को उठाया है और सांप्रदायिकता को किस-किस रूप में देखा है। अब तक हुए शोध-कार्यों में सांप्रदायिकता को केवल धर्म के नजरिये से देखने की कोशिश हुई है जबकि इसके पीछे और भी कई कारण मौजूद हैं।