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समकालीन हिन्दी उपन्यासकारों में धर्म और संप्रदाय के चित्रण का अध्ययन | Original Article

Alok Kumar Sen*, Vandana Devi Kushwah, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

भारत के विभाजन से पहले और विभाजन के बाद के समय और समाज में काफी परिवर्तन आ चुका था। स्वाभाविक रूप से इसका प्रभाव भारतीय जनमानस पर भी पड़ा। कोई भी रचनाकार समाज से कटकर नहीं रह सकता। कोई भी ऐसी कालजयी रचना नहीं हो सकती जिसमें किसी न किसी रूप में समाज का चित्रण न किया गया हो। विभाजनोपरान्त परिस्थितियों ने रचनाकार के मानस को भी निश्चय ही प्रभावित किया है। उत्तरोत्तर बढ़ती हुई सांप्रदायिकता ने रचनाकार को धर्म, समाज, संप्रदाय, पारिवारिक रिश्ते, धर्म से इतर इंसानियत के आधार पर बनने वाले रिश्तों पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य किया। ऐसे में रचनाकार के दृष्टिकोण में धर्म, संप्रदाय, समाज इत्यादि को देखने और परखने के नजरिये का विश्लेषण करना आवश्यक है। धर्म भले ही अलग-अलग हों उनमें धर्म के नाम पर आपसी किसी भी मतभेद के लिए कोई स्थान नहीं था। दोनों ही धर्म के लोग एक-दूसरे के धार्मिक उत्सवों में शामिल हुआ करते थे लेकिन विभाजन ने इनके बीच मतभेद खड़े कर ही दिये। दंगे हुए और दोनों ही कौम के लोगों की जान और माल की क्षति हुई। स्वाधीनता के बाद भारत के राजनीतिज्ञों ने इसे और हवा दी। दोनों के बीच विभाजन बरकरार रखा। राही के उपन्यास ‘आधा गाँव’ के संबंध में आलोचक कुँवरपाल सिंह कहते हैं- ‘‘अपने महत्वपूर्ण उपन्यास ‘आधा गाँव’ में राही ने यह स्पष्ट किया कि धर्म राष्ट्र नहीं होता। इस्लाम एक धर्म है लेकिन एक राष्ट्र नहीं। राष्ट्र और धर्म को एक समझना इतिहास विरोधी समझ एवं मिथ्या चेतना है।