बी. वी कारन्त द्वारा अनूदित गिरीश कारनाड का मूल कन्नड़ नाटकहयवदन:1971 | Original Article
पूर्ण की अपूर्णता (मनुष्य की अपूर्णता) को विभिन्न काल-खंडों में रखकर अनेक नाटक लिखे गए हैं। ’हयवदन’ की उपकथा में मनुष्य को पूर्ण मनुष्य होने से आरम्भ होकर-शरीर और मस्तिष्क, दोनों की श्रेष्ठता की कामना मुख्य कथा में प्रदर्शित की जाती है। स्त्री-पुरुष के आधे-अधूरेपन की त्रासादी और उनके उलझावपूर्ण संबंधों की अबूझ पहेली को देखने-दिखानेवाले नाटक तो समकालीन भारतीय रंग-परिदृश्य में और भी हैं लेकिन जहाँ तक संपूर्णता की अंतहीन तलाश की असह्य यातनापूर्ण परिणति तथा बुद्धि और देह के सनातन महत्ता-संघर्ष के परिणाम का प्रश्न है गिरीश कारनाड का हयवदन, कई दृष्टियों से, निश्चय ही एक अनूठा नाट्य-प्रयोग है।नाटक की शुरुआत में भगवत नाम का एक पात्र मंच पर आता है जो कि इस नाटक का कथावाचक भी है, वह गणेश पूजा के माध्यम से इस नाटक के सफल मंचन की कामना करता है ।