कुबेरनाथ राय के निबंधों की भाषा-शैली | Original Article
प्रत्येक युग का साहित्य अपने पिछले युग से कथ्य एवं भाषा के स्तर पर कुछ नयापन लिए हुए आता है। हम सब साहित्य के विद्यार्थी लगभग रूढ़ हो चुकी इस उक्ति को बार-बार दोहराते रहते हैं कि एक नया कथ्य अपने लिए एक नयी भाषा भी साथ लेकर आता है और इन्हीं भाषा एवं कथ्य के आधार पर हम साहित्य में काल विभाजन करते हैं। जाहिर सी बात है कि बिना भाषा के हमारा चिंतन, दर्शन एवं देश-समाज की हमारी समझ एक निजी भाषा बनकर ही रह जायेगी। उनकी कोई सामाजिक भूमिका बिना भाषा के संभव नहीं है। भाषा एक लोक स्वीकृत रूप है। अतः भाषा में रचनाकार को अपने रचनात्मक प्रयोजन को पूरा करने के लिए विचलन भी करना है और उसके सामाजिक रूप को अजनबी मुहावरा भी नहीं प्रदान करना है। इसी कशमकश में रचनाकार सर्जनात्मक भाषा को उपलब्ध करता है। विष्णु प्रभाकर कहते हैं- ‘‘किसी ने अभी तक अविष्कार नहीं किया उस भाषा को जो भावों को सही अभिव्यक्ति और अर्थ को सही शब्द दे सके। सूक्ष्म को स्थूल में और निर्विकार को साकार में रूपान्तरित करना प्राणों को मथना है।’’[1] भाषा के साथ बहुत अधिक स्वैच्छाचार रचना एवं भाषा दोनों के लिए खतरा है, किन्तु रचनाकार निरंकुश-प्रवृत्ति का होता है, क्योंकि उसे किसी बंधी लीक पर चलना स्वीकार्य नहीं होता।