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भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में भारतीय भाषा और संस्कृति | Original Article

Arti Kumari*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

भूमंडलीकरण एक ऐसी बाजार आधारित व्यवस्था है जो पश्चिम के संपन्न देशों को विश्व के बाजार में अपनी पैठ बनाने का अवसर प्रदान करती है। यूं तो इसका उद्देश्य विश्व के देशों को अपने उत्पादों के लिए व्यापक बाजार उपलब्ध कराना रहा है परंतु इस व्यवस्था का लाभ चुने हुए संपन्न देशों तक ही सीमित रहा है। धीरे धीरे इसने अपनी परिधि का आयत्त कर बाजारवाद के दायरे से बाहर निकल भाषा और संस्कृति की सीमाओं में भी घुसपैठ करना आरंभ कर दिया है। इसके प्रभाव से नैतिक मूल्यों में तेजी से क्षरण हुआ है। इसने भारत की महान सांस्कृतिक विरासत की नींव हिला दी है। भारतीय संस्कृति के प्राचीन मान हाशिए पर आ गए हैं। मूल्यों एवं आदर्शों में लोगों की आस्था कम होती जा रही है। कमोबेश यही स्थिति भारतीय भाषाओं की भी है।एक सोची-समझी रणनीति के अंतर्गत भाषा और संस्कृति के महान दुर्ग को धराशाई करने का प्रयास किया जा रहा है। संस्कृति के लिए यह समय काफी चुनौतीपूर्ण है। भारतीय भाषाओं एवं संस्कृति के लिए यह कोई नया अनुभव नहीं है। पूर्व में भी इसने ऐसे अनेकों झंझावातों को झेला है तथा उन चुनौतियों का बखुबी सामना कर अपनी सफलता के परचम लहराए हैं। इसकी पूरी संभावना है कि इस अग्नि परीक्षा में भी वे सफल होंगी तथा बाजारवादी ताकतों को मुंह की खानी होगी। हमारी पहचान एवं अस्मिता भाषा एवं संस्कृति से ही जुड़ी हुई है। बाहरी चमक दमक के वशीभूत होकर अपनी जड़ों से दूर होना हमारे लिए आत्मघाती होगा।