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मध्यकालीन भावबोध से मुक्ति का स्वर | Original Article

Asha Tiwari Ojha*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

सामंतवादी व्यवस्था दलितों का एक तरफ शोषण कर रही थी व दूसरी ओर समाज में व्याप्त असमानता, आर्थिक शोषण और वर्गभेद को मजबूत बना रही थी। सामाजिक असमानता और भेद को धर्म के आधार पर सही ठहराया जा रहा था। मध्यकालीन समाज द्वारा स्वीकृत अपूर्ण व अधूरा ज्ञान ही वास्तविक मान लिया गया था।धर्मसत्ता के इस वर्चस्व के विरुद्ध पूरे विश्व में 13वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक धार्मिक आन्दोलन शुरू हुए। अंधविश्वासों, कुरीतियों और सामाजिक विषमता से उपजे भेद के विरोध में धर्म की सीमाओं के भीतर रहकर धर्म के वास्तविक एवं मूल उपदेशों पर जोर देने वाले कवियों का उदय हुआ। योरोप में मार्टिन लूथर एवं उनके जैसे अन्य सुधारक, अरब देशों में विभिन्न सूफी संत और भारत में कबीर, गुरुनानक, रैदास और दादू जैसे कवियों व उपदेशकों ने धर्म के मानवीय प्रेममूलक रूप पर जोर दिया।