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साहित्य की मार्क्सवादी दृष्टि | Original Article

Asha Tiwari Ojha*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

साहित्य और कला में यथार्थ की अभिव्यक्ति को महत्वपूर्ण मानते हुए, ‘यथार्थवाद’ को विश्व कला और साहित्य की सर्वोत्तम देन मानते थे। एंगेल्स के अनुसार ‘‘यथार्थवाद का अर्थ, ‘‘तफसील की सच्चाई का, आम परिस्थितियों में आम चरित्रों का सच्चाई भरा पुनर्सृजन है।’’[1] यथार्थवाद की आवश्यकता दरअसल प्रगतिशील लेखकों के लिए विचारधारात्मक और राजनीतिक प्रतिबद्धता के समान ही है। प्रगतिशील लेखकों का यह दायित्व बनता है कि उनकी रचनाओं में प्रगतिशील विश्वदृष्टि का स्वर स्पष्ट रूप से सुनाई पड़े। इसके साथ ही उसका प्रयोजन भी स्पष्ट होना चाहिए। मार्क्स-एंगेल्स साहित्य में प्रयोजन मुखता के विरोधी नहीं थे। प्रयोजन मुखता के उस स्वरूप को वो नकारते थे जिसमें प्रयोजन-फूहड़ता, कोरे-नीति प्रवचन, कलात्मकता की जगह उपदेशबाजी के रूप में आता है। एंगेल्स ने मिन्नाकाउत्सकी को लिखी गयी चिट्ठी में सच्ची प्रयोजन-मुखता की इन शब्दों में सटीक व्याख्या की ‘‘मेरे विचार में प्रयोजन को स्वयं स्थिति तथा क्रिया में-उस विशेष रूप से लक्षित किये बिना ही-प्रकट होना चाहिए तथा लेखक का काम यह नहीं है कि वह सामाजिक टकरावों के, जिनका वह वर्णन करता है, भावी ऐतिहासिक समाधान को पाठक के समाने तैयार शुदा रूप में प्रस्तुत करे।’’[2]