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हिन्दी कथा साहित्य का समाजशास्त्र | Original Article

Asha Tiwari Ojha*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

हिन्दी कथा साहित्य में बाल-केन्द्रित कहानियों एवं उपन्यासों में बच्चों की अनेक सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक समस्याओं की चर्चा करते हुए हिन्दी कथाकारों ने गहन संवेदना तथा गहरी समझ का परिचय दिया है। कहीं यह चर्चा प्रत्यक्ष है, कहीं परोक्ष, तो कहीं गौण, किन्तु समाज-शास्त्रियों की दृष्टि से छूट गई अनेक ऐसी गंभीर समस्याओं को प्रमुखता से स्थान दिया गया है जो बच्चों पर सीधे आक्रमण करती हैं तथा जिनके सूत्र उनके अभिभावकों के व्यवहार, उनकी परवरिश के तौर-तरीकों, उनको प्राप्त होने वाले परिवेश तथा वातावरण में मिलेंगे। फिर भी बच्चों की कुछ समस्याओं की व्याख्या समाजशास्त्र बेहतर ढंग से करता है और कुछ समस्याओं के सूक्ष्म से सूक्ष्म बिन्दु तक केवल साहित्यकारों की ही दृष्टि पहुँच सकी है। दोनों दृष्टिकोणों की तुलना करने पर प्राप्त तथ्य इस प्रकार हैं- हिन्दी कथा साहित्य में भी पूरी गम्भीरता के साथ इस समस्या को उठाया गया है। परिवार, पड़ोसी, रिश्तेदार या अन्य विश्वासपात्रों के द्वारा किए गए इस अपराध की व्याख्या के साथ इसके कारण बच्चों पर पड़ने वाले तात्कालिक तथा दूरगामी दुष्प्रभावों की भी चर्चा की गई है जैसे - कमल कुमार की कहानी ‘नहीं बाबूजी नहीं’ तथा नासिरा शर्मा की कहानी ‘बिलाव’ में नशे में धुत पिता ही अपनी पुत्री के साथ दुराचार करता है। सगे पिता के साथ जब पुत्री सुरक्षित नहीं तो सौतेले पिता का कहना ही क्या? सौतेले पिता की कुदृष्टि की शिकार शबनमा (‘शबनमा’ - देवेन्द्र सत्यार्थी) उसकी यौन-कुचेष्टाओं से घबराकर घर से भाग जाती है किन्तु कहीं भी सुरक्षित ठौर ठिकाना न मिलने के कारण अन्ततः एक वेश्या बन जाती है। वहीं ‘छिन्नमस्ता’ नामक उपन्यास में प्रिया नामक बालिका अबोधावस्था से लगातार अपने सगे बड़े भाई के द्वारा दुराचार की शिकार होती है और चुपचाप सहते रहने की विवशता उसके शोषण के नैरन्तर्य को और भी बढ़ाती है। ‘अशक्त और मासूम बच्चे अपने चारों ओर बड़ों की दुनिया में निडर होकर अपनी पीड़ा की बात कह सकें, ऐसा माहौल उन्हें कहीं नहीं मिलता। अपने माँ-बहन, भाई, पिता, चाचा, ताऊ, टीचर, पड़ोसी या सम्बन्धी की आँखों में आँखें डालकर बता सकें कि पिछली रात, पिछले दिन, पिछले महीने या पिछले साल या हर रात, हर दिन उनके साथ कौन क्या कर रहा है। ‘बच्चे झूठ बोलते हैं’ बड़ों की दुनिया का ये ब्रह्मास्त्र या वेदवाक्य बच्चों के मनों पर घात लगाए बैठा रहता है .....बात-बात पर झिड़की खाने वाले बच्चे नंगे होकर कैसे दिखाएँ कि उनके जिस्म कितने ज़ख्मी हैं।’[1] प्रिया को भी हर वक्त डाँटने, झिड़कने वाली माँ से यह सब कुछ बताने में यही भय है कि उसकी बात का विश्वास नहीं किया जाएगा। ‘खेल’ (नवनीत मिश्र) तथा ‘मैंने कह दिया न बस’ Iरानी दर) में यह दुष्कृत्य विश्वासपात्र पड़ोसी करता है। वहीं ‘कन्या’ (उमेश माथुर) में कथा वाचक पण्डित, ‘बिलाव’ (नासिरा शर्मा) और ‘काली लड़की का करतब’ (मंजुल भगत) में मुँह बोले मामा और चाचा तथा ‘सूरजमुखी अँधेरे के’ (उपन्यास-कृष्णा सोबती) में यह दुष्कृत्य एक अज्ञात व्यक्ति करता है।