प्रगतिवाद हिन्दी की साहित्यिक प्रवृत्तियों का विकास | Original Article
हिन्दी की प्रगतिवादी आन्दोलन भी अपने पूर्ववर्ती साहित्यिक आन्दोलन’ ‘छायावाद’ के बीच से ही निकला है। छायावाद के प्रादुर्भाव काल में भी तमाम तरह के आरोप लगे थे। ‘‘छायावाद के जन्मकाल में आचार्यों ने उसे बंगला और अंग्रेजी की जूठन कहकर उसकी व्याख्या करने के कष्ट से बचना चाहा। फिर शैली विशेष कहकर उसे टाल दिया। कुछ समर्थकों ने उसे ‘स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह’ कहा और कुछ ने ‘शिशु कवि के लिए उसे माँ का गोद’ बताया।’’[1] तथा ‘‘अंग्रेजी की रोमांटिक कविता और बंगला में रवीन्द्रनाथ के गीतों से उन्होंने नयी हिन्दी कविता की तुलना की और वे इस नतीजे पर पहुँचे कि उसमें मौलिकता नाम को नहीं है, वह भारतवर्ष की पवित्र भूमि के लिए एक विदेशी पौधा है, जो यहाँ पनप नहीं सकता।’’[2] इन सब शकांओं और आशांकाओं को निर्मल करता हुआ, छायावाद भारतीय धरती पर पुष्पित और पल्लवित हुआ। ‘‘छायावाद हमारी विशेष सामाजिक और साहित्यिक आवश्यकता से पैदा हुआ और उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए उसने ऐतिहासिक कार्य किया। समाज और साहित्य को उसने जिस तरह पुरानी रूढ़ियों से मुक्त किया, उसी तरह आधुनिक राष्ट्रीय और मानवतावादी भावनाओं की और भी प्रेरित किया। व्यक्तित्व की स्वाधीनता, विराट-कल्पना, प्रकृति साहचर्य, मानव-प्रेम, वैयक्तिक प्रणय, उच्च नैतिक आदर्श, देशभक्ति, राष्ट्रीय स्वाधीनता आदि के प्रसार द्वारा छायावाद ने हिन्दी जाति के जीवन में ऐतिहासिक कार्य किया। कविता के रूप-विन्यास को पुरानी संकीर्ण रूढ़ियों से मुक्त करके उसने नवीन अभिव्यंजना प्रणाली के लिए द्वार खोल दिया।’’[3]