चोल कला की धार्मिक और अन्य प्रतिमाओं में नारी | Original Article
भारतीय मूर्तिकारों ने पकी मिट्टी की मूर्तियाँ बनाने और पत्थर तराशने-उकेरने में ताजितनी कुशलता प्राप्त कर रखी थी, उतनी ही प्रवीणता उन्होंने कांसे को पिघलाने, ढालने और उससे मूर्तियाँ आदि बनाने के कार्य में भी प्राप्त कर ली थी। चोल भी भारत के महान निर्माताओं एवं कलाविदों में गिने जाते हैं। इनके राजत्व में निर्मित प्रासाद तथा मन्दिर इनकी कलात्मक उपलब्धि, साम्राज्य विस्तार एवं ऐश्व र्य के प्रतीक हैं तो मंदिरों में विद्यमान मूर्तिसज्जा एवं धातु मूतियाँ इनकी मौलिकता, कलात्मकता एवं सौंदर्यबोध की प्रतीक हैं। मन्दिर निर्माण कला के क्षेत्र में चोलों ने पल्लव परम्पराओं को विरासत के रूप में प्राप्त किया था, अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा एवं अभिरूचि के अनुसार इन्होंने इसे अत्यधिक रचनात्मक उत्कृष्टता तथा भव्यता प्रदान की। 10वीं से 12वीं सदी तक चोल, दक्षिण भारत में सर्वाधिक शक्तिशाली एवं समृद्धिशाली शासक हुए। उनके सामरिक अभियान उत्तर भारत में गंगा नदी तक, दक्षिण-पूर्वी एशिया में सुमात्रा, जावा, श्रीविजय आदि राज्यों तक हुए थे। उन्होंने अपने वैभव के अनुकूल दक्षिण भारत में अनेक मन्दिरों का निर्माण कराकर द्राविड़-कला शैली को विकास के चरमशिखर पर पहुँचा दिया।