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जनजाति समाज के आर्थिक विकास में वनों का महत्व (दक्षिण राजस्थान के विशेष सन्दर्भ में) | Original Article

Kantilal Ninama*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

जनजातीय अर्थव्यवस्था के विकास की यात्रा भूख और भय से मुक्ति के प्रयास तथा सुरक्षित आवास एंव भोजन से प्रारम्भ होकर वनों के इर्द-गिर्द संघर्ष की निरन्तरता है। वन धरती पुत्र जनजातियों की बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पति है जिसके सहारे उनकी सामाजिक, आर्थिक एंव पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। आदिमकाल से जनजाति संस्कृति व वनों का चोली दामन का साथ रहा है। प्रारंभ से ही जनजातियों का निवास वन क्षेत्रो में ही रहा है। वनों ने जनजातीय जीवन एंव संस्कृति के उद्भव, विकास तथा संरक्षण में आधारभूत भूमिका प्रस्तुत की है। प्राचीन काल से जनजातीय लोग जंगलों को अपनी सम्पति का प्रमुख अंग मानते है। भीलों का जीवन वनों पर ही आश्रित था। अपनी आजीविका के लिए वनों के संरक्षण में विभिन्न प्रकार की उत्पन्न वस्तुओं का उपयोग करते थे। अट्ठारहवीं शताब्दी में दक्षिणी राजस्थान मे क्रमशः मेवाड़, डूंगरपुर, बांसवाडा़ रियासतों में वनों का सघन आवरण था। इन क्षेत्रों में पाए जाने वाले प्रमुख पेडो़ं के नाम इस प्रकार थे बबूल, बेर, चन्दन, धोक, धामन, धावडा़ गुदी, हल्दू, इमली, जामुन, कजरी, खेजडी़, खेडा़, कुमटा, महुआ, नीम, पीपल, सागवान, आम, मुमटा, सालर, बानोटीया, गुलर, बांस आदि वृक्षों के घनघोर जंगल थे। इन जंगलों से प्राप्त विविध सामग्री का निःशुल्क उपयोग करते थे तथा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे।