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मीडिया, साहित्य और बाजार | Original Article

Rajendra Singh*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

साहित्य, समाज और मीडिया के अन्तर्संबंध का आधार मानवीय मूल्य है। बाजारवाद के दबाव ने इस संबंध पर चोट की है। पत्रकारों व साहित्यकारों से मीडिया को समाज में जागरूकता पैदा करने के साधान के रूप में देखा व समझा जाता है। युगीन समस्याओं, आशाओं, आकांक्षाओं का चिंतन एवं मनन के रूप में पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ अभिव्यक्त करने की अपेक्षा की जाती है। आज साहित्यकार-पत्रकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बूम में हाशिए पर हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति के इस भयावह दौर में तर्क विस्थापित और निर्बुद्धिपरकता हावी है। बाजार में भोगवाद और संस्कृति में अनुभववाद सब कुछ बन गए हं। यहां प्रश्न यह है कि बाजार और विशिष्ट सामाजिक सांस्कृतिक अस्मिता के लिए मीडिया के जो नए वृत बन रहे हैं, उसमें साहित्य की भूमिका क्या है? हिंदी मीडिया के साहित्यविहीन होत जाने का एक कारण भाषायी भी है। न्यू मीडिया में हिंग्रेजी के प्रति पनप रह अतिशय प्रेम भी साहित्य को पत्रकारिता से दूर करने में अहम भूमिका अदा कर रहा है। सरकारी एवं कॉर्पोरेट नियंत्रित मीडिया के कंटेंट से सामाजिक सरोकारों के सवाल जुदा है। अस्तित्व, अधिकार, अस्मिता, स्वाधीनता, स्वावलम्बन, समानता आदि से जुड़े प्रश्नों के लिए मीडिया और साहित्यकारों को मानवीय मूल्यों से युक्त प्रासंगिक लेखन कर मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना पडे़गा।