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सांख्य दर्शन में ईश्वर की अवधारणा | Original Article

Sarita Kumari*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

‘ईश्वर’ शब्द सुनते ही हमारे मन में यह विचारधारा आती है कि इस जगत को बनाने वाला, पालन करने वाला, पाप - पुण्य कर्मों का फल देने वाला, जीवों पर अनुग्रहादि करने वाला, सर्वेश्वर्यशाली, अनादि, मुक्त सर्वशक्तिसम्पन्न, अनन्त आनन्द में तीन, व्यापक तथा चैतन्यगुण युक्त एक प्रभु है जिसकी इच्छा के बिना जगत का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। ऐसा ईश्वर भारतीय दर्शन में केवल न्याय दर्शन ही स्वीकार करना है। अन्य भारतीय दर्शनिक की मान्यता कुछ भिन्न है जिन्होंने ईश्वर को स्वीकार किया है। वेदान्त दर्शन में नित्य, अनादि, अनन्त तथा शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप एकमात्र निर्गुण ब्रह्म तत्त्व को स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त समस्त जगत इसी का विवर्त है। अर्थात् समस्त जगत में एकमात्र ब्रह्म तत्त्व है। पर जब मायोपाधि से युक्त होकर सग्रणरूप को धारण करता है तब वह न्याय दर्शन के ईश्वर के तुल्य हो जाता है। न्याय दर्शन का ईश्वर तो मात्र निमित्त कारण है जबकि वेदान्त का सगुण ब्रह्मरूप ईश्वर जगत का निमित्त तथा उपादान दोनों कारण है। न्याय की दृष्टि से जगत वास्तविक है जबकि वेदान्त की दृष्टि से जगत भ्रमात्मक है। इस तरह, वेदान्त की दृष्टि से पर ब्रह्म ही सत्य है और उस पर ब्रह्म का मायारूप ईश्वर है, जो परम सत्य नहीं है। योग दर्शन सांख्य दर्शन का पूरक दर्शन है। इसमें प्रकृति और पुरूष दो मुख्य तत्त्व माने गये हैं। पुरूष संख्या में अनेक हैं। एक पुरूष - विशेष को ईश्वर कहा गया है जो अनादि, मुक्त, क्लेशादि से परे, कर्मों के फलोपभोग तथा नाना प्रकार के संस्कारों से सर्वथा मुक्त है। वह प्राणियों पर अनुग्रहादि करता है। अतः इस दर्शन का ईश्वर एक पुरूष विशेष है और वह सत्य रूप है।