भील जनजाति में महिलाओं की सामाजिक स्थिति (झाबुआ जिले के विशेष सन्दर्भ में) | Original Article
सामाजिक व्यवस्था मानव जीवन की सुसंस्कृत और सभ्य प्रगति का द्योतक है। मानवीय समाज की परिकल्पना में महिला एवं पुरुष दोनों ही समान स्थान पाते हैं। जिनके मध्य अधिकारों, कर्तव्यों, सेवा और समर्पण के सामंजस्य से ही समाज उन्नति की ओर अग्रसर बना रहता है। सामाजिक दूरी को सतत और गतिमान बनाए रखने के लिए किसी एक भी पक्ष को उच्च अथवा निम्न स्तर प्रदान करना सर्वथा अनुचित प्रतीत होता है। भारतवर्ष के संदर्भ में देखा जाए तो यहां संस्कृति, परंपराओं, वेशभूषा, खानपान, रीति-रिवाजों और रहन-सहन की व्यवस्थाओं के बीच दो प्रकार का समाज निवासरत रहता है। पहला जो शहर या शहर के आसपास सुविधाओं से सुसज्जित आधुनिक परिवेश में रहता है, जहां महिला एवं पुरुष के बीच समनता के प्रति जागरूक दृष्टिकोण का भाव रहता है। वहीं दूसरी ओर तकनीकी चकाचौंध से दूर सघन वन क्षेत्रों में अपना जीवन यापन करने वाले लोग, जहां समाज में महिला-पुरुष का सामंजस्य आधुनिक कहे जाने वाले समाज से कहीं श्रेष्ठ प्रतीत होता है। इस समाज में महिलाएं पारिवारिक कार्यों से लेकर आर्थिक गतिविधियों में भी पुरुष का साथ एक कदम आगे बढ़कर देती हैं। यह जनजाति, समाज में महिलाओं के मूलभूत अधिकारों को उन्हें देने की स्वीकृति प्रदान करती है, जो आधुनिक कहे जाने वाले समाज से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ है। अपने वर का चयन खुद करना, विधवा विवाह की स्वतंत्रता, पारिवारिक कार्यों में पूर्ण सहयोग इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। मध्यप्रदेश राज्य के झाबुआ जिले और उसके आसपास पाई जाने वाली भील जनजाति वर्ग की महिलाओं के सामाजिक व आर्थिक पक्ष को उद्घृत करते हुए उन्हें वर्तमान की आधुनिक उन्नत, आर्थिक व शैक्षणिक रूप से संपन्न धारा में लाने के लिए किए जाने वाले उपाय व सार्थक प्रयास ही इस शोध का प्रमुख उद्देश्य है, जिससे उनकी पूरा संस्कृति के संरक्षण के साथ ही उनकी हस्त कला को व्यावसायिक स्तर प्राप्त हो सके।