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संस्कृत भाषा का भाषिक वैविध्य | Original Article

Anita Sharma*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

भाषाशास्त्री दो प्रकार की वाक् स्वीकार करते हैं- दैवी और मानुषी। इनमें दैवी वाक् मन्त्रमयी तथा द्वितीय मानुषी वाक् मनुष्यों में व्यवहृत वाक् कहलाती है। मानुषी वाक् में प्रायः दैवी वाक् के ही पद-वाक्य आदि से निबद्ध संरचना का ग्रहण होता है। जो मात्र आनुपूर्वी के हेर-फेर के कारण एक नया रूप धारण करती है। जिसका मूल दैवी वाक् ही है। इसीलिये आचार्यदण्डी ने पहली बार सोद्धोष दैवी वाक् को संस्कृत नाम से अभिहित किया है।[1] संस्कृत नामक दैवी वाक् ने परवर्ती काल में पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आदि रूपों को भी धारण किया। भाषाशास्त्रियों ने संस्कृत से उद्भूत प्राकृत के प्रमुख पांच भेद माहाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी अर्धमागधी और पैशाची स्वीकार किये हैं। किन्तु प्रायः दशम शताब्दी में अन्य भाषाओं का भी अस्तित्व दृष्टिगोचर होने लगा था जिनमें गुजराती, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, राजस्थानी, सिन्धी, हिन्दी, नेपाली, डोंगरी, मैथिली, बंगला, उड़िया और असमिया आदि नव्यभाषाएं हैं। इस प्रकार संस्कृत से विकसित और समृद्ध समस्त भारतीय भाषाओं को आर्यभाषा कहा जाने लगा। संस्कृत के कारण भाषाशास्त्रियों ने भारतीय भाषाओं का सम्बन्ध ईरानी और यूरोपीय भाषाओं से माना जाने लगा। अत एव संस्कृत के भाषिक वैविध्य को ध्यान में रखकर ही सर विलियम जोन्स को ग्रीक और लातिन भाषाओं के साथ तुलना करने के लिये बलात् सन्नद्ध और उत्साहित होना पड़ा। मातृभाषा संस्कृत के उक्त भाषिक वैविध्य को देखते हुए प्रकृत लेख में संस्कृत का उत्तर भारत, हिमाचल प्रदेश की कांगड़ी एवं किन्नौरी भाषाओं के साथ अन्तःसम्बन्ध को उपस्थापित किया गया है।