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ऐतिहासिक काल में वर्ण-व्यवस्था के आधार पर अर्थोपार्जन संबंधित सीमाएँ | Original Article

Sanjay Kumar*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

महाभारत में वर्ण-धर्म के पालन पर बल देते हुए कहा गया है कि ईश्वर ने चारों वर्णों को उत्पन्न किया है और उनके वर्ण-धर्मों का निर्धारण किया जिनका पालन अत्यावश्यक है। वर्ण-व्यवस्था के अनुसार नियमित कर्म करने में कोई पाप नहीं है। वर्ण-व्यवस्था के अनुसार निर्धारित कर्म को ही सर्वोच्च और श्रेयस्कर माना गया है। चाहे कर्मों का संबंध अपनी जीविका के लिए अर्थोपार्जन से ही संबद्ध क्यों न हो। पौराणिक और ऐतिहासिक ग्रंथों ने भारत के प्राचीन समाज को संतुलित एवं व्यवस्थित करने के लिए व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और नैतिक कर्मों को उसके वर्ण-व्यवस्था की सीमाओं में नियंत्रित कर निर्धारित किया है। प्रस्तुत शोध-आलेख में भारत के ऐतिहासिक काल में प्रचलित वर्ण-व्यवस्था पर आधारित अर्थोपार्जन संबंधित सीमाओं का अध्ययन किया गया है। प्राचीन समय में जीवन-यापन के लिए धन-संग्रह और अर्थोपार्जन के संबंधित सीमाओं एवं दायित्वों का विवेचन प्रस्तुत अध्ययन में प्रमुख रूप से किया गया है।