गंडक परियोजना के एतिहासिक वर्णन | Original Article
मिथिला के भौगोलिक परिक्षेत्रा में नदी श्रृंखलाओं का जाल फैला हुआ है। मिथिला की बस्तियाँ, कस्बे और शहर आम तौर पर नदियों के तटों पर ही बसे हुये हैं। यही कारण है कि ऐतिहासिक काल में यह भू-भाग मिथिला के अतिरिक्त तिरभुक्ति अथवा तिरहुत के नाम से भी विख्यात रहा है। पूरब से पश्चिम की ओर मिथिला में लगभग 15 प्रमुख नदियाँ बहती हैं, जिनकी असंख्य सहायक नदियाँ हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में छारण कहा जाता है। इस नदी-मातृक भू-भाग का आर्थिक विकास, सामाजिक स्थिरता और सांस्कृतिक अभ्युत्थान मुख्यतः बाढ़ नियंत्राण, सिंचाई की अत्याधुनिक व्यवस्था, जल विद्युत के समुचित विकास, सहायक उद्योगों की स्थापना तथा उनकी अत्याधुनिक व्यवस्था पर निर्भर करता है। लेकिन गंगा के उत्तरी किनारे से लेकर हिमालय की तराई तक चैड़ा और पश्चिम चम्पारण से लेकर कटिहार तक लम्बा लगभग 58.500 किमी0 के विस्तृत भू-भग में फैला हुआ गंगा घाटी का यह मैदान देश का सबसे बड़ा बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रा है। इसका औसतन 76 क्षेत्राफल प्रत्येक वर्ष बाढ़ में इूब जाता है, जो बिहार के कुल क्षेत्राफल का 40 हिस्सा है। देश के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रा की कुल आबादी के 56 लोग इस इलाके में बसते हैं।1 बाढ़ की विभिषिका के दंस को भोगने के अभिशप्त इस इलाके में मध्य काल से ही जहाँ-तहाँ तटबंधों का निर्माण किया जाने लगा था। 1897 में पहली बार कलकत्ता में बाढ़ सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें कोसी नदी को नियंत्रित करने के लिये गम्भीरता पूर्वक विचार हुआ2। यहीं से बाढ़ पर बहस की दौर प्रारम्भ हुई, और इसे नियंत्रित करने के लिये तात्कालिक उपाय के रूप में तटबंधों के निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। लेकिन परियोजना तैयार कर मिथिला के भू-भागों को बाढ़ से मुक्त करने के लिये आजादी से पहले कोई कारगर कदम नहीं उठाये जा सके। आजादी के बाद सरकार ने इस ज्वलंत समस्या पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना प्रारम्भ किया जिसके परिणाम स्वरूप कोसी, गंडक, बागमती और कमला एवं महानन्दा नदी परियोजनाओं के अतिरक्त कई अन्य छोटी-छोटी परियोजनाओं का क्रियान्वयन किया गया, ताकि न केवल मिथिला के लोगों को बाढ़ से मुक्ति ही नहीं मिल सके, बल्कि सिंचाई के कारगर व्यवस्था द्वारा कृषि के समुन्नत और जल विद्युत उत्पादन के द्वारा उद्योगों को विकसित किया जा सके।