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मध्यकालीन भारत में नारी की स्थिति एवं वर्ण व्यवस्था | Original Article

Pranaw Kumar*, Dewan Nazrul Quadir, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

विविध स्तरों पर उपसामन्तों की वृद्धि के कारण भूमि से प्राप्त होने वाली आय अनेक छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त हो जाती थी जिससे दोनों छोरो पर स्थित कृषक और राजा की स्थिति दुर्बल हो गई और बिचौलियों के हाथो में आय चली जाने के कारण उन्हें क्षति उठानी पड़ती थी। कृषकों को भूमि करके अतिरिक्त अन्य कई प्रकार के कर देने पड़ते थे।जिस प्रकार से राज्य की राजनीति धरातलीय स्तर पर विस्तृत हो रही थी और गण-संघ राजनीतिक व्यवस्था का विनाश हो रहा था उसी प्रकार आर्थिक स्तर पर धरातलीय रूप में ग्रामीण कृषक वस्तियों का विस्तार हो रहा था यद्यपि कि नगरीय अर्थव्यवस्था या सिक्कों की अर्थ व्यवस्था के उत्कर्ष की प्रवृत्ति भी मिलती है। वर्ण जाति पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का भी धरातलीय विस्तार असीमित था यद्यपि सामाजिक ढांचे में कुछ परिवर्तन भी लौकिक आधार पर हो रहे थे। भूमिदानों एवं उपसामंतीकरण के फलस्वरूप राजनीतिक सत्ता का जिस प्रकार श्रेणी-विन्यास हुआ उसका प्रतिविश्व सामाजिक-आर्थिक जीवन में भी देखा जा सकता है।