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बुद्धकालीन शिक्षा पद्धति में गुरू शिष्य सम्बन्धों की प्रासंगिकता | Original Article

Shveta Kumari*, Ramakant Sharma, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

प्राचीन भारतीय मनीषियों की सुविचारित मान्यता रही है कि ज्ञान मात्र पुस्तकों से ही नहीं प्राप्त होता है वरन् ‘ज्ञान’ का पहला केन्द्र परिवार होता है। बालक की पहली शिक्षक उसकी माता होती है तो दूसरा शिक्षक पिता। तदुपरान्त बालक अपने तीसरे शिक्षक आचार्य अथवा गुरू के पास पहुँचता है। प्राचीन बौद्धकालीन भारतीय शिक्षा के दो प्रमुख स्तम्भ रहें हैं- गुरू और शिष्य। गुरू तथा शिष्य की विशेषताओं तथा उनके परस्पर संबंधों को जाने बिना प्राचीन बौद्ध शिक्षा पद्धति को ठीक प्रकार से नहीं जाना समझा जा सकता है। बौद्ध एवं वैदिक दोनो प्रकार की शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य शिष्य का चरित्र-निर्माण तथा उसको समाज एवं राष्ट्र के निर्माण में मन, वाणी, तथा कर्म से संलग्न करने में सफल बना रहा है। आज की आधुनिक शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य शिष्य नहीं वरन् छात्र का व्यक्तिगत भौतिक अभ्युत्थान हो गया है। आज आवश्यकता है कि प्राचीन एवं बौद्ध युगीन गुरू - शिष्य संबंधों तथा दोनो की पात्रता से सीख लेकर आधुनिक शिक्षकों तथा छात्रों की अध्यापन-अध्ययन क्षमता का नितान्त निष्पक्ष एवं व्यापक मूल्यांकन किया जाए तथा उक्त मूल्यांकन को वैध, विश्वसनीय, वस्तुनिष्ठ, समयानुकुल एवं दोष रहित बनाया जाए।