समकालीन कला में प्रतीकों का महत्व | Original Article
कला निरन्तर प्रगतिशील एवं गतिशील रही है। कला मनुष्य के जीवन व संस्कृति का एक अंग है। इसके द्वारा प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, परम्पराओं आदि का बोध होता है। अपनी परम्पराओं एवं संस्कृति को नई पीढी में स्थानान्तरित करने का ये सबसे सरल एवं सफल माध्यम है। कला का स्वरूप परिवर्तन होता रहा है, समाज की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास के साथ कला का विकास भी होता रहा है। कला सदैव ही समकालीन रही है किन्तु उसमें देश, काल, परिस्थितियों एवं मनुष्य के विचारों का प्रभाव उस पर समय-समय पर पड़ता रहा है, और उसमें अपेक्षित परिवर्तन भी संभव है। परम्परा-परिवर्तन-आधुनिकता के धर्म को निभाते हुये भारतीय कला यहाँ तक पहुँची। 19वीं शदी के अन्त तक अंग्रेजों ने पाश्चात्य चित्रकला को भारत में फैलाने का पूर्ण प्रयास किया। जिसमें वह सफल भी हुये। शताब्दी के अन्त तक पूर्वी भारत के कला जगत में दो विशिष्ट कला रूप प्रकट हुये। अधिसंख्या में प्रतिभाशाली कलाकारों ने प्रचलित तकनीक अपना ली। वे अपनी चित्रात्मक आकांक्षा की दृष्टि के लिये व अपनी जीविका के लिये भारतीय जीवन और परिदृश्य को यूरोपीय शैली में चित्रित करने लगे। तथा अन्य कुछ ने बहुत करके ग्रामीण एवं अति सम्पन्न वर्गों के आनन्द के लिये भारतीय संस्कृति एवं प्रतीको के चिर परिचित चित्र बनाना स्वीकार किया। जिन्हे बाजार में पेन्टिग कहा गया। विदेशी शासन की चकाचौंध और नवीन संघर्षों ने हमारी हर चीज को बेगाना सा बना दिया। भारतीय कलाकारों ने अंग्रेजों की शैली एवं तकनीक को सीखा और उनकी शैली में चित्रांकन भी किया। किन्तु अपनी पारम्परिक कला को भी बनाये रखा है। जिससे धीरे-धीरे नई शैली का विकास हुआ। जिसे वर्तमान में समकालीन कला कहा गया।