सातवें दशक के उपन्यासों में चित्रित नारी-चेतना | Original Article
डॉ. देवराज के शब्दों में “शिक्षा का विशिष्ट उद्देश्य है। शिक्षार्थी के व्यक्तित्व का गुणात्मक विकास दुनिया के महान लोगों की बौद्धिक तथा आवेगात्मक प्रक्रियाओं में सांझेदार बनकर शिक्षार्थी अपने व्यक्तित्व का विकास करता है।[1] अतः व्यक्ति में आत्मबोध व आत्मनिर्भरता के गुण का सूत्रपात शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव होता है। शालमली उपन्यास में शिक्षा के व्यापक अर्थ को परिभाषित किया गया है। शालमली के अनुसार “शिक्षा का अर्थ है व्यवहार में व्यापकता और सोच की जटिलता को तोड़कर उसमें विस्तार लाना।[2] नारी में शिक्षित होकर नया आत्मबोध की चेतना इस युग की सबसे बड़ी देन है। शिक्षा जानकारी या डिग्री के लिए न होकर जीवन-निर्माण के लिए जरूरी है। इससे व्यक्ति के भीतर के सर्वोत्तम का विकास होता है। ‘अशेष’ उपन्यास में मंजरी भी इस तथ्य को स्वीकारती है, उसके अनुसार शिक्षा मनुष्य में स्वाभिमान जगा देती है और उसी को लेकर विपरीत स्थितियाँ का सामना करता है।[3] अर्थात शिक्षा का उद्देश्य है व्यक्ति में ऐसी योग्यताओं को उत्पन्न करना, जिनके द्वारा वह विभिन्न मूल्यों की सुरक्षा, सृष्टि तथा उपभोग कर सके।[4] क्योंकि नारी के शिक्षित होने के बाद ही उसने अपने अधिकारों के प्रति सजगता का अनुभव किया। अब वह विवाह तक ही सीमित नहीं है, वरन् अपने कैरियर के बारे में भी पूर्ण रूप से सोचती है। शाल्मली उपन्यास में शाल्मली के अनुसार “इस कम्पीटीशन में आ गई। तो उसका जीवन बदल जायेगा वह घर बाहर कुछ कर सकती है। अपनी मर्जी से अपने घर परिवार को संभाल सकती है। वरना हर बात पर पति के आगे हाथ फैलाना पडे़गा।[5] यह सोच मात्र शाल्मली की ही नहीं वरन् नारी की मानसिकता की है पात्र चाहे कोई भी हो। अशेष उपन्यास में मंजरी भी कहती है “उसे जल्दी नौकरी कर लेनी चाहिए-किसी छोटी जगह के स्कूल में फिर आगे पढ़ते रहना चाहिए। प्रयाग उसकी सहायता कर सकते हैं आत्मनिर्भर होना उसके लिए आवश्यक है।[6]