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भारतीय साहित्य और महिला सशक्तिकरण | Original Article

Kavita Rani*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

गत एक-आध दशक से भारतीय साहित्य एवं समाज के अनेक क्षेत्रों में एकाएक-महिला सशक्तिकरण, नारी-विमर्श, नारी-स्वतन्त्र्य, नारी-अस्मिता, महिला समानाधिकार, नारी-चेतना जैसे लुभावने शब्दों में नारी की दशा के प्रति चिंता प्रकट करने का प्रचलन चल निकला है। जब ऐसे प्रश्न उठते हैं, तो एक ओर तो मन यह सोचने पर मज़बूर हो जाता है कि- दुर्गा, चण्डी, काली और चामुण्डा के रुप में भयातुर दवे सृष्टि तक को दानवी आतंककारियों से भयमुक्त करवाने वाली आदिशक्ति स्वरुपा नारी का सशक्तिकरण और दूसरी ओर यह प्रश्न भी हृदय में कुलबुलाता है कि यह सशक्तिकरण आखिर है क्या? क्या पौरुषेय अहम् से भरा तथाकथित पुरुष समाज वास्तव में यह चाहने लगा है कि सदियों से अपने जिस ‘अर्धभाग’ को उसने अपने वर्चस्व से दबा रखा था वह सचमुच पूर्ण शक्तिमय हो जाए या फिर यह भी उस समाज की नारी के उभरते, विकसित होते लावे से उगलते जा रहे व्यक्तित्व को शांत एवं ठंडा करने की एक छलना मात्र ही है।