ग्रामीण व शहरी छात्र छात्राओं के शिक्षा स्तर का तुलनात्मक अध्ययन | Original Article
शिक्षा के द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास किया जाता है। शिक्षा मनुष्य को ऐसा परिवेश प्रदान करती है जहां व्यक्ति का निरंतर सर्वोतोन्मुखी विकास होता है। छात्र के सर्वतोन्मुखी विकास के उत्तरदायित्व में शिक्षक की अहम भूमिका है। जिसके फलस्वरूप शिक्षण संस्थानों का उत्तरदायित्व है कि वह अध्यापकों को सुनियोजित एवं सुगठित प्रशिक्षण प्रदान करें जिससे वह भी अपने छात्रो के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे। शैक्षिक लब्धि मनुष्य के सर्वांगीण विकास में एक महत्वपूर्ण योगदान देती है आजादी के बाद भारतीय शिक्षा में सुधार व स्तरीकरण हेतु अनेक आयोगो तथा समितियों का केन्द्रीय स्तर पर गठन किया गया। अनेक आयोगो तथा समितियों ने शिक्षा की समस्याओं की समीक्षा की व राष्ट्रीय नीतियाँ तैयार की। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग 1948-1949, माध्यमिक शिक्षा 1952-53 व शिक्षा आयोग 1964-66 का गठन किया गया। कोठारी आयोग ने 1951-56 के दौरान शिक्षा में हुई प्रगति की समीक्षा की व इसमें सुधार की आवश्यकता स्पष्ट करते हुये अपने सुझाव प्रस्तुत किये। इन सिफारिशों और प्रयासों के आधार पर 1968 में एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति स्वीकार की गयी। सभी स्तरों पर शैक्षिक सुविधाओं का प्रसार शुरू हुआ व शिक्षा को मनोवैज्ञानिक आधार पर केन्द्रित करने का कार्य आरम्भ हुआ। क्योंकि बालक का व्यक्तित्व प्राकृतिक व भौतिक वातावरण का समावेश होता है अतः वर्तमान में मनौवैज्ञानिकों ने बालक के असीम जिज्ञासा भरे औजस्वी मस्तिश्क को ततृप्त और विकसित करने हेतु स्वस्थ व शैक्षिक पारिवारिक, सामाजिक वातावरण को आवश्यक माना है।