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चित्रा मुद्गल के उपन्यासों में नारी जीवन | Original Article

Rajiv Sharma*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

साहित्य सृजन बहुआयामी आत्म अभिव्यक्ति है, जो एक साथ कई उद्देश्यों को संधान करता है। स्वांत सुखाय होते हुए भी पाठक का मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धक उसका प्रथम उद्देश्य है। स्त्री विमर्श साहित्य के लिए नित्य नए ज्वलंत मुद्दे उपलब्ध करवा रहा है अनेक पुरुष तथा महिलाएं स्त्री समस्याओं को लेकर रचनाएं लिख रहे हैं इन रचनाओं में परिवर्तित वर्तमान काल की स्थितियां का वर्णन तो होता ही है। साथ ही साथ भूतकाल के आधार पर भविष्य की दिशाओं को स्वस्थ बनाने के प्रयास भी दिखाई देते हैं। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के दशकों में भारतीय कवित्रीयों तथा लेखिकाओं ने प्रतिरोध के स्वर में मुखर होकर यह जता दिया है कि उसकी समस्याओं के समाधान और उसकी उपेक्षाओं आकांक्षाओं का निर्णय अकेला पुरुष कर सकेगा समाज को उसके अस्तित्व व्यक्तित्व को स्वीकार करना होगा उसकी दिक्कतों को समझना होगा मर्द सत्ता या पितृ सत्ता द्वारा तय होती कानून व्यवस्था के बरस संविधान कानून लोकतंत्र आधारित नियमावली स्थान लेती जा रही है औरत पर बलपूर्वक दबाव कायम करने के लिए धर्म ग्रंथों तथा खुदा भगवान के डर दिखाने की प्रवृत्ति को भी तर्कशीलता निर्मल कर दिया है।