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विभिन्न संदर्भो में नारी अस्मिता का हिन्दी महिला उपन्यासों में वर्णन | Original Article

Savita .*, Duwedi ., in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

नारी अस्मिता की परिभाषा किसी निष्चित वैचारिक फ्रेमवर्क के अन्तर्गत नहीं की जा सकती। ऐतिहासिक एवं सामाजिक कारणों की खोज के बावजूद समाज में नवीन विकास और परिवर्तन अनेक अन्तर्विरोधों से युक्त हैं। परंपरा की विरासत और आधुनिकता का स्वीकार जिस निर्णायक क्षितिज की अपेक्षा रखता है, वह बहुत ही धुंधला ळें नारी के सार्वभौमिक अस्तित्व की अनिवार्यता के सम्बंध में इंदिरा गांधी ने कहा है कि – “नारी-स्वतंत्रता भारत के लिए विलासिता नहीं है, अपितु राष्ट्र की भौतिक, वैचारिक और आत्मिक संतुष्टि के लिए अनिवार्य बन गई है।” डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने भारतीय संविधान में नारी मुक्ति के लिए अनुच्छेद 15(1) द्वारा लिंग के आधार पर किए जाने वाले भेद को समाप्त किया और अनुच्छेद 14 द्वारा नारी को पुरूष के समान बराबरी का दर्जा दिलाया एवं समान कार्य के लिए समान वेतन दिलाने की व्यवस्था की, किन्तु सीमोन द बाउवार का कहना है कि- “आज की स्त्री पारंपरिक नारी की भूमिका में स्वयं को पंगु नहीं बना देना चाहती, किंतु इससे बाहर आते ही उसे अपने नारीत्व का उल्लंघन करना पड़ता है, पुरूष यदि अपनी सेक्सुअलिटी के कारण संपूर्ण व्यक्ति बने, तब स्त्री भी उसके बराबर अपनी पहचान नारीत्व को बनाए रखकर ही हासिल कर सकती है।”