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मानवाधिकार और सामाजिक न्याय: एक सैद्धांतिक विमर्श | Original Article

Mohan Kumar*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

आज के परिवर्तनकारी दौर में क्या मनुष्य एक केंद्रबिंदु है? आज शासन, उधोग, विकास इत्यादि की बढ़ती हुयी प्रतिस्पर्धा ने मनुष्य को पीछे धकेल दिया है। यह स्थिति आज से नहीं अपितु प्राचीनकाल से ही चली आ रही है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने की स्वतंत्रता तथा समाज में सम्मानजनक स्थिति पाने की लालसा होती है, यह जीवन की प्रथम आवश्यक इकाई है। प्रत्येक व्यक्ति के कुछ आधारभूत व प्राकृतिक अधिकार होते हैं, जो उसके जीवन के सार्थक अस्तित्व को बनाये रखने में महत्वपूर्ण होते है। राज्य के समझौतावादी विचारों के प्रतिपादको जैसे- हॉब्स, लॉक एवं रूसो ने राज्य की उत्पति से पूर्व ही मानव के कुछ प्राकृतिक अधिकारों की पहचान की और इस बात पर बल देते है कि आधुनिक राष्ट्र- राज्य का विकास उन प्राकृतिक अधिकारों की संरक्षण के साथ ही हुआ है। यह भी सत्य है कि प्रजातांत्रिक संस्थाओं के विकास के साथ- साथ मानव के अधिकारों की सूची लंबी होती चली गई, जिसकी एक वास्तविक स्वीकृति 10 दिसंबर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ के महासभा द्वारा पारित मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा की संकल्पनाओं में मिलती है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए मानवाधिकार अति महत्वपूर्ण है।