डॉ. भीमराव अम्बेडकर और भारतीय स्त्री | Original Article
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार के भाग तीन के अनुछेद 14,15,16 पर विचार करे तो यह अनुछेद लिंग आधारित भेद भाव को असंवैधानिक मानता है। इस तथ्य के आधार पर क्या भारतीय महिलाओं को विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका में भागेदारी (प्रतिनिधित्व) के साथ-साथ समाज में इन महिलाओं को आर्थिक, धार्मिक, शैक्षणिक आदि स्थितियों में समान अवसर, प्रतिनिधित्व, अधिकार, स्वतंत्रता, न्याय आदि प्राप्त है? यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि एकतरफ 21वीं सदी में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का वर्चस्व है तो, वही दूसरी तरफ समावेशी विकास, समावेशी लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की अवधारणा व्यापक शोध विमर्श का प्रश्न केंद्र में है। ऐसी स्थिति में डॉ. भीमराव अम्बेडकर का स्त्री संबंधित चिंतन महत्वपूर्ण ही नहीं प्रासंगिक हो जाता है। क्योंकि उनका मानना था कि पुरुषवादी विचार व चिंतन ने आधे मानव-जाति के संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास में सिर्फ बाधा ही नहीं, बल्कि उन वंचित मानव की प्रतिभा को कुंठित भी किया है, जिससे संपूर्ण मानव समाज को इससे हानि पहुंच रहा है।