मनोविज्ञान और हिन्दी कथा साहित्य | Original Article
किसी भी मनुष्य के मानसिक संवेगों, आन्तरिक अनुभूतियों, अतृप्त वासनाओं, दिवास्वप्नों और असामान्य व्यवहार के विश्लेषणपरक अध्ययन को ‘मनोविज्ञान’ की संज्ञा दी जाती है। कतिपय चरित्रा अन्तर्मुखी प्रवृत्ति के होते हैं और कतिपय चरित्रा बहिर्मुखी प्रवृत्ति के। यह दीगर बात है कि मनोविज्ञान सामान्यजन के चिन्तन, व्यवहार और पेचीदगी भरे संवेगों का अध्ययन करता है अथवा विचित्र और अव्यवहारिक मनोवृत्ति के पात्रों का। मनुष्य के विक्षुब्ध होने अथवा उदात्त बने रहने के पीछे कुछ अनुवांशिक प्रभाव होते हैं और कुछ स्वभावजन्य विशेषता होती है। हिन्दी साहित्य में मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण को आधार बनाकर बहुत कम शोधपरक कार्य हुए हैं। प्रथम महायुद्ध की विभीषिका ने विश्वस्तर पर अस्तित्ववाद और मनोविश्लेषण की प्रवृत्ति पर सोचने के लिए बाध्य किया है। किसी व्यक्ति-विशेष के नेपोलियन अथवा हिटलर बनने के पीछे कतिपय विशिष्ट कार्य-कारण होते हैं। हर एक व्यक्ति न माक्र्स बन सकता है, नायड या एडलर। युंग ने आर्किटाइपल इमेजस के साथ मिथक और दिवास्वप्नों की बात की है। प्रत्येक रचनाकार अपने मानसिक अभावों की पूर्ति कला-जगत के संसार में करता है। वह अपने व्यक्तित्व की अपूर्णता या लघुता को किसी पात्रा-विशेष में पूर्णता या असीमित भाव में देखना चाहता है। हिन्दी कथा साहित्य में लिबिडो, इडिपस ग्रन्थि, हीन मनोग्रन्थि, उच्च मनोग्रंथि, अन्तःप्रज्ञा, अंतश्चेतना को आधार बनाकर मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन कम हुए हैं।