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स्त्री मुक्ति: सामर्थ्य और सीमा | Original Article

Shiksha Rani*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

स्त्री मुक्ति या स्त्री-विमर्श का तात्पर्य पुरुष वर्चस्व, पुरुष-दर्प, पुरुष-मानस की विकृत सोच से सभी की मुक्ति है, न कि स्त्री-पुरुष संबंधों से उसकी मुक्ति। संसार और समाज को यदि बने रहना है, तो वह स्त्री-पुरुष सहभागिता में ही बना रह सकता है। मुक्ति की बात करने और उसके लिए उद्यमशील होने से पहले जरूरी है कि मुक्ति को उसके समूचे निहितार्थों और सही आशय में जाना और समझा भी पाए। इतिहास गवाह है कि मुक्ति की सही समझ के अभाव में, हाथों में उठाए गए मुक्ति के झंठे बदत्तर गुलामी के झंडे साबित हुए हैं। हमारे अपने समय में बाजार और उसका प्रचार तंत्र अपनी जिस अपसंस्कृति के साथ हम पर हावी हैं, समाचार पत्रों के पन्नों पर, दूरदर्शन के पर्दे पर और सामाजिक जीवन में भी उसकी जो शक्ल हम देख रहे हैं, मुक्ति की आत्मछलना में जी रही तथाकथित मुक्त स्त्री के, उसकी देह गाथा के जिन विवरणों से हम गुजर रहे हैं- जरूरी है कि मुक्ति को उसके सही आशयों में बाजार के महाप्रभुओं के इशारों पर स्त्री देह की नुमाइश स्त्री मुक्ति नहीं, आत्मछलना है।