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हिन्दी के प्रमुख उपन्यासों में विभाजनोपरान्त अस्तित्व की तलाश में भटकते शरणार्थी | Original Article

Pardeep Kumar*, Gyani Devi Gupta, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research

ABSTRACT:

साहित्य और समाज का सम्बन्ध, साहित्यकारों द्वारा समसामयिक परिस्थितियों का युगबोध करना, आलोच्य उपन्यासों का श्रेष्ठता के फलस्वरूप प्रमुख हो जाना। इन्हीं प्रमुख उपन्यासों के पात्रों का विभाजनोपरान्त अस्तित्वहीन होकर अस्तित्व की तलाश में लगातार संघर्षमयी-जीवन व्यतीत करना। जमींदारी के उन्मूलन का प्रभाव, आर्थिक तंगी की विवशता, नयी प्रशासनिक प्रणाली में सामंजस्य न कर पाना, मार-काट का असर। हिन्दी के प्रमुख उपन्यासों में अस्तित्व की तलाश सम्बन्धी प्रसंगों का मिलना। यशपाल कृत ‘झूठा सच’ की पात्राएँ उर्मिला, कनक और तारा का खुन्नस होना, भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘वह फिर नहीं आई’ की पात्रा श्यामला का अस्तित्व की तलाश करते-करते वेश्यावृति करना, बदीउज़्ज़माँ कृत ‘छाको की वापसी’ में छाको का इलाही मास्टर के झूठे वायदों में फस कर जन्नत की तलाश के लिए पाकिस्तान जा कर अस्तित्व खो देना। ’जिन्दा मुहावरे’ उपन्यास में नासिरा शर्मा का पात्र निज़ामउद्दीन का विभाजनोपरान्त कराची में विस्थापित होना, इस पात्र के पास धन, मान-मर्यादा के होते हुए भी विवादास्पद जीवन यापन करना। ‘सूखा बरगद’ उपन्यास का पात्र परवेज़ का विदेश में विस्थापित होकर भी अस्तित्व कायम न कर पाना। ‘लौटे हुए मुसाफिर’ उपन्यास के पात्रों का उजड़े हुए चिकवों गाँव में वापस आ कर फिर से अस्तित्व बनाने का प्रयास करना। राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ के पात्र पाकिस्तान जाये या भारत में रहने को वरीयता देकर दोराहे में होना। ’कितने पाकिस्तान’ उपन्यास के पात्र ऐतिहासिक पात्र होते हुए भी अस्तित्व बनाए रखने के लिए अदालत में सफाई देते फिरते हैं। ‘घर वापसी’ उपन्यास का पात्र कमालउद्दीन धर्म बदलने के पश्चात् भी मुसलमानों की नफ़रत का शिकार हुआ, मधुर कुलश्रेष्ठ द्वारा इस दुःखद घड़ी को पेश करना है। कृष्णा सोबती का ’गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान’ उपन्यास में अस्तित्व कायम करने के लिए प्रयत्नशील होना। ‘वाह कैम्प’ उपन्यास में द्रोणवीर कोहली का अपने सगे-सम्बन्धियों के साथ रहते हुए, अस्तित्व के लिए संघर्ष करना। इस शोध पत्र में हिन्दी के प्रमुख उपन्यासों को प्रश्रय बना कर शरणार्थी औपन्यासिक पात्र क्यों अस्तित्वहीन हुए, अस्तित्व कायम करने के लिए उनको कैसा-कैसा संघर्ष करना पड़ा, सभी पहलुओं पर चिन्तन करना ही इस शोध-पत्र का ध्येय है।