गीता द्वारा आदर्श व्यक्तित्व निर्माण | Original Article
गीता एक ऐसी ज्ञानगंगा है, जिसकी विचारधारा में समस्त आध्यात्मिक सत्य और उसकी सहज अनुभूतियों की लहरे स्पष्टतः हमें परिलक्षित होती है गीता में दिव्यकर्म, दिव्य ज्ञान, दिव्य भक्ति की त्रिवेणी एक साथ लहराती है। गीता व्यक्ति को परहितव्रती बनाती है। इसका परहित व्रत किसी सीमा से आबद्ध नहीं है, यह तो जाति, धर्म, वर्ण या वर्ग-विशेष से परे प्राणिमात्र तक पहुँ चाता है। आसक्ति और वासना के साधारण दोषों से प्रारम्भ कर गीता यह बतलाने का प्रयास करती है कि नित्य-नै मित्तिक कत्र्तव्यों का पालन करता हुआ व्यक्ति किस प्रकार शान्त, तुष्ट, स्थितप्रज्ञ एवं योगस्थ रहकर अपने व्यक्तित्व को उन्नत कर सकता है।