अर्थव्यवस्था का आधार स्तम्भ प्रतियोगिता है। इसकी प्रतियोगिता की धारणा के पीछे जो विचार काम करता है वह यह है कि व्यक्ति जन्म जात आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी होता है। वह अपने विकास के लिए तथा दूसरे से आगे रहने के लिए अथक प्रयास करता है। उसके इस प्रयास के फलस्वरूप विकास होता है तथा इससे सभी का लाभ होता है। इसलिए यह व्यवस्था प्रतियोगिता को प्रोत्साहित करती है। इसमें वैश्वीकरण की मुक्त बाजार की नीतियों के द्वारा भी इस प्रतियोगिता को विश्वव्यापी करके पूरी मानवता का उद्धार करना अर्थात् आर्थिक रूप से सभी वर्गों को लाभान्वित करना ही है। परन्तु तथ्य यह सिद्ध करते हैं कि विभिन्न वर्गों में यह अनिश्चितता, क्षोभ बेचैनी का आलम सदा उसे घेरे रहता है। अनिश्चितता के कारण व्यक्ति हमेशा अधिक से अधिक पैसा कमाने और सामान एकत्रित करने की प्रतियोगिता में लगा रहता है। उसे शान्ति तो नहीं मिलती, परन्तु वह प्रतियोगिता में दौडता ही चला जाता है। इसे यह भी पता नहीं चलता कि वह अपनों को बहुत पीछे छोड़ आया है तथा अब अकेला हो गया है।