मानव ने आविष्कारी और खोजी सोच विकसित होने पर भोजन व सुरक्षा हेतु समूहों में रहने के साथ पत्थरों के प्रयोग के बाद भाले, बाड़ आदि बना लिए थे। इसके साथ झरने, बूंदों, हवाओं, पक्षियों, पशुओं, कंकर-पत्थरों के लुढ़कने-गिरने आदि की आवाजों से मरनोरंजन होने पर विभिन्न प्रकार की शृंगारित ध्वनियों का आनन्द लेने के साथ इन पर शोध करना शुरू किया तो नए-नए प्रयोगों के परिणाम स्वरूप परिष्कृत हुए ‘संगीत’ से मनोरंजन के साथ शरीर-मन की सुरक्षा और रोगोपचार कार्य भी समयानुसार हुए। तकनीकी विकास बढ़ने पर कुछ लोगों ने मनुष्यों के समूहों, राजीय-राष्ट्रीय-अंर्तराष्ट्रीय सीमाओं पर विवाद खड़े कर लिए, जिस कारण विभिन्न वर्ग-सम्प्रदायों, देशों में विवाद के साथ नरसंहार भी बढ़ रहे हैं। बहुत दिनों से हालात ऐसे भी बदले हैं कि मनुष्य ने हथियारों को मनोरंजन के तौर पर भी इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, जिसके नुकसानदायक परिणाम हुए हैं। अतः ‘विकास’ की बजाय ‘विनाश’ को आमंत्रण देते बढ़ते हुए अत्याधुनिक हथियारों, बमों आदि पर किया जाने वाला अत्यधिक खर्च ‘सुरक्षा’ को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से ‘समस्या’ में बदल रहा है, जिस खर्च को नियंत्रित कर ‘मनोवैज्ञानिक स्वस्थ सोच’ के विस्तार पर खर्च बढ़ाने की अधिक आवश्यकता है, ताकि जीवन प्राकृतिक ही पूर्ण हो।