प्रत्येक राष्ट्र के लिए प्राथमिक शिक्षा का अपना अलग महत्व होता है। यहाँ तक की विकसित राष्ट्र भी प्राथमिक शिक्षा को समाज के नव-निर्माण का आधार मानकर इस शिक्षा को पूरी गम्भीरता न ईमानदारी के साथ लागू करते हैं। परन्तु हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा के प्रति न तो सरकार ही पूरी तरह गंभीर है और न ही समाज इधर प्राथमिक शिक्षा विशेषकर जो ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक विद्यालयों के रूप में आयोजित की जाती है इसमें शिक्षण हेतु महिला शिक्षकों की भूमिका निरन्तर बढ़ती जा रही है। किन्तु इन शिक्षिकाओं की शिक्षा का स्तर अधिकांशतः अति उच्च स्तर का होता है जिससे आज अनेक प्रकार की व्यवहार व समायोजन सम्बन्धी समस्याएं भी उत्पन्न होने लगी है। विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि इन ग्रामीण प्राथमिक विद्यालय की अध्यापिकाओं में अपनी उच्च शिक्षा को लेकर उच्च भावना ग्रन्थि का निर्माण हो जाता है साथ ही छोटी आयु के बच्चों को शिक्षा प्रदान करने को लेकर हीन भावना ग्रन्थि निर्मित हो जाती है जो उनके व्यक्तिगत जीवन से लेकर शिक्षण व्यवसाय तक को प्रभावित करती है। परिणाम स्वरूप अनेक व्यवहार सम्बन्धी समस्याएं समयानुसार उत्पन्न होती रहती है। इससे शिक्षिकाओं को न तो व्यावसायिक सन्तुष्टि प्राप्त होती है और न ही ग्रामीण क्षेत्र के प्राथमिक विद्यालयों के बालक-बालिकाओं का बहुमुखी विकास ही हो पाता है। इस प्रकार सरकार व समाज दोनांे को ध्यान देने की आवश्यकता है।