हिन्दी साहित्य के भक्ति काल के पूर्व भारत में अनेक प्रकार के मतमतान्तर, सम्प्रदाय, उप सम्प्रदाय आ दि प्रचलित थे। शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन और नवागत इस्लाम आदि धर्म विभिन्न मानव समहों के रूप में चारों और झाए थे। सिद्ध और नाथ पंथ के योगी अने चमत्कारों द्वारा सता को प्रभावित और कभी-कभी आतंकित करने का भी प्रयत्न करते रहते थे। बौद्ध धर्म अपने बा ह्या चारों और नाना प्रकार की तांत्रिक उपासना-पद्धतियों के कारण विशृंख लित और निष्प्रभ हो चुका था। जैन धर्म बा ह्या चारों और कर्म-काण्डों में फंस राजस्थान, मालवा, उसके आसपास, गुजरात आ दि प्रदेशों में अपना अस्तित्व साए हुए था। उसकी उन्नत चा रिक परम्परा धमिल हो गयी थी। शाक्त, शंव और वष्णव इतने अस हि हो गये थे कि एक दूसरे का विरोध करने में ही अपनी सारी शक्ति लगाए रखते थे। बौद्धों की वाममार्गी व्यक्तिगत साधता ने भी विक्त रूप धारण कर लिया। इसमें सभी प्रकार के अतिशय भोगों द्वारा वैराग्य भावना उत्पन्न करने का सिद्धान्त प्रमुख माना गया था। इसने खुले व्यभिचार, मदिरापान, मास-भक्षण आदि को खूब बढ़ावा दिया। इस लिए आगे चलकर नाथपंथी साधकों ने जीका की पवित्रता को प्रधान मान नारी भोग का पर्ण बहिष्कार कर दिया। इन लोगों ने वाममार्गी भोग-प्रधान साधना-पद्धतियों का पूर्ण बहिष्कार कर एक ऐसी पवित्र, निर्मल और सात्विक साधना पद्धति का प्रवर्तन किया जिसने हिन्दी के संत और सफी कवियों को प्रभा वित किया।