संचार एवं सम्पर्क सामाजिक अंतःक्रिया के अनिवार्य तत्व हैं। सभ्यता के विकास से लेकर मुद्रण यन्त्र के आविष्कार तक यही लोक माध्यम समाज में सन्देश प्रसारण का कार्य करते थे। बुन्देलखंड जनपद जितना विशाल है, उतना ही समृद्ध भंडार है लोकसाहित्य का। इसी प्रकार यहाँ के लोक की विविधता के कारण लोकसाहित्य भी विविधता के रंगों से रंजित है।[1] अब चूकिं लोककाव्य वाचिक परम्परा का साहित्य है, इस जनपद में वाचिक परम्परा का उद्भव 10वीं शती में हुआ था, जब दिवारी गीत, सखयाऊ फाग, राई और लमटेरा गीत रचे और गाए गए। 12वीं शती में रचित लोकमहाकाव्य ‘आल्ह’ दूसरे प्रकार का गाथा-रूप था। उसका ‘आल्ह’ छन्द देवी गीतों की गायकी से निसृत हुआ था।[2] “आल्हा” गाथाओं की मौखिक और लिखित, दोनों परम्पराएँ आज तक जीवित हैं और विशेषता यह है कि दोनों में जागरूकता और ताजगी है। पहली परम्परा है मौखिक, जो लोक और अधिकतर अल्हैतों में सुरक्षित है।[3] अल्हैतों या आल्हा-गायकों की अपनी अलग-अलग परम्परा गुरू से शिष्यों तक चलती हुई आज तक बनी हुई है। आल्हा के प्रचलित रूपों में प्रमुखतः पाँच प्रकार हैं आल्हखण्ड के वर्तमान विविध रूपों में आल्हखण्ड के मूल रूप की खोज करना अत्यंत कठिन है। फिर भी विविध रूपों में एक ऐसी समानता भी दिखलाई पड़ती है, जिससे एक पुराने और जनप्रचलित रूप की खोज की जा सकती है।