हिन्दी गद्य की विभिन्न विधाओं में कहानी एक अत्यंत सशक्त एवं लोकप्रिय विधाओं में एक है बदले हुए परिवेश एवं समाज के साथ यह निरन्तर अपने को नये रूप में ढ़ालती रही है। स्वातंत्र्योत्तर दशकों में सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक परिवर्तनों के मध्यनजर कहानी विधा में अनेकानेक आन्दोलन दृष्टिगत हुए यथा-नयी कहानी, सहज कहानी, समान्तर कहानी, सचेतन कहानी, जनवादी कहानी आदि-आदि। समकालीन कहानीकारों ने वर्तमान जटिल यथार्थ, पल-पल परिवर्तित होते परिवेश, बदलते हुए जीवन मूल्यों को विभिन्न कोणों से देखा, परखा और अपनी अनुभूति के धरातल पर उस नये स्वर को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया। समकालीन कहानी जीवन के यथार्थ से सीधे टकराती है। वह जीवन के भोगे हुए सत्यों को ईमानदारी व प्रखरता के साथ अभिव्यक्त करती हुई आगे बढ़ती है। समकालीन कहानी में जो कुछ है, वह मनुष्य ही है, मनुष्य के इतर और कोई भेद नहीं।
भूमण्डलीकरण एवं उदारीकरण के दौर ने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के वर्षों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य को बहुत गहराई से प्रभावित किया है। पारिवारिक संबंधों का ताना-बाना बिखरने लगा है। संबंधों की धुरी केवल अर्थतंत्र में सीमित हो गई है। सारे मानवीय एवं आत्मीय रिश्ते अर्थाश्रित हो गए हैं। परम्परा एवं परिवेश से दूर मध्यम वर्ग मायावी दुनियां में दिग्भ्रमित है। आर्थिक मूल्यहीनता की जड़ में राजनीतिक मूल्यहीनता निहित है। भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, जातिवाद, प्रांतवाद के आधार पर राजनीतिक नेतृत्व का व्यवहार हो गया है। नीचे से ऊपर रिश्वतखोरी का खेल चलने लगा है। धरती, धन शक्ति और प्रतिष्ठा तथाकथित वर्ग विशेष की स्थायी पूँजी बन रहा है। गरीबी, महामारी, कुपोषण, बेरोजगारी, सामाजिक अन्य ...