वस्तुतः निजाम दक्कन में दिल्ली सम्राट का वैध प्रतिनिधि माना जाता था। परंतु 18वीं सदी के पूर्वार्द्ध में उसने प्रायः अपने को उसकी सत्ता से स्वतंत्र कर लिया था। मराठों और मैसूर के राज्यों ने धीरे-धीरे निजाम की शक्ति को नगण्य बना दिया और ये शक्तियाँ बराबर उस पर चढ़ाई करती थी और तंग करती थी। अपनी कमजेार स्थिति के कारण वह कम्पनी के मित्र बन गया और उनके हैदर के साथ लड़ाई को छोड़कर (1780) उसने बाजाप्ता संधि का अनुपालन किया। 1768 के संधि के अनुसार, 1782 में निजाम के भाई के मृत्यु के बाद कम्पनी ने गुन्टूर के जिले को वापस मांगा। यह स्थान निजाम के लिए बड़े महत्व का था, क्येांकि उसी से होकर समुद्र पहुँचने का रास्ता था। किन्तु कम्पनी के लिए भी यह सामरिक महत्व का था। क्येांकि यह मद्रास और दूसरी सरकारों के बीच में पड़ता था, उत्तर-दक्षिण में ब्रिटिश प्रदेश एक-दूसरे से अलग थे कई बहाने लगाकर निजाम ने इसके सौपने में हीलाहवाला दिखलाया और 1788 ई0 के बीच तक जब तक परिस्थिति में परिवर्तन नहीं हुआ, कार्नवालिस को इंतजार करना पड़ा। वह कप्तान केनेडी सितंबर में हैदराबाद गया और उसने गुण्टूर सरकार पर शांति से अधिकार प्राप्त कर लिया।