हिन्दी साहित्य के आधुकि काल में गद्य साहित्य का आरंभ संवत्-1860 के निकट चार विद्वानों- मुंशी सदासुखलाल, इशाअल्ला खाँ, लल्लू लाल और सदल मिश्र की कृतियों द्वारा हुआ। परंतु इन्होंने केवल गद्य के नमूने ही प्रस्तुत किये, इनमें से किसी को भी भविष्य में गद्य साहित्य के लिए कोई भी आदर्श स्थापित करने या निर्देश करने का यश प्राप्त नही हुआ। यह यश अथवा श्रेय इनके 70-72 वर्ष पश्चात् भारतेन्दु जी को आधुनिक गद्य भाषा के स्वरूप प्रतिष्ठापक तथा साहित्य प्रवत्र्तक के रूप में प्राप्त हुआ।[1]
हरिश्चंद्र का प्रभाव भाषा और साहित्य दोनों पर बड़ा गहरा पड़ा। उन्होंने जिस प्रकार गद्य की भाषा को परिमार्जित करके उसे बहुत ही चलता मधुर और स्वच्छ रूप दिया, उसी प्रकार हिन्दी-साहित्य को भी नए मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया। उनके भाषा संस्कार की महत्ता को सब लोगों ने मुक्त कंठ से स्वीकार किया और वर्तमान हिन्दी गद्य के प्रर्वत्तक माने गए। भारतेन्दु हरिश्चंद्र हिन्दी गद्य के ही नही अपितु आधुनिक काल के जनक भी कहे जाते है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी भारतेन्दु जी ने साहित्य के विविध् क्षेत्रों में मौलिक एंव युगान्तकारी परिर्वतन किये और हिन्दी साहित्य को नवीन दिशा प्रदान की। नवयुग के प्रर्वत्तक भारतेन्दु जी का हिन्दी साहित्यकारा में उदय ने निश्चय ही उस पूर्णचंद्र की भांति हुआ जिसकी शांत, शीतल, कान्तिमयी आभा से दिगवधुंए आलोकित हो उठती है। निश्चय ही उनकी उपाधि भारतेन्दु-युगप्रर्वत्तक सार्थक एवं सटीक है।