गरमपंथ विशेष रूप से अपनी विचारधारा के लिए बंकिमचन्द्र, विवेकानन्द और दयानन्द का ऋणी था, उत्तराधिकार में इनकी राजनीति को इन लोगों ने नहीं स्वीकारा था। यह मूलतः तत्कालीन नरमपंथी राजनीति की प्रतिक्रिया थी जो भारत के प्रति जिम्मेदारी में अंग्रेजों के दावे को ज्यों का त्यों कबूल कर प्रार्थनाओं और प्रचार आन्दोलनों के द्वारा उस समय की स्थिति में अधिक से अधिक लाभ उठाने की उम्मीद करता था। नरमपंथी भारत से अंग्रेजी राज को उखाड़ फेंकने में नहीं, वरन् उसका पूरक बनने के काम में लगे थे।